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दसवें दशक की कहानियों में दलित प्रवचन: जाति-भेदभाव के खिलाफ विद्रोह की भावना के विशेष संदर्भ में

जगदीशचंद्र बैरागी*; डॉ अरुणा दुबे**; डॉ. गीता नायक***
*शोध विद्वान, हिंदी अध्ययन केंद्र, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, एमपी; **सहायक-प्रोफेसर, हिंदी, श्री. कालिदास गर्ल्स कॉलेज, उज्जैन, एमपी; ***आचार्य और पूर्व अध्यक्ष, हिंदी स्टडी स्कूल, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, एमपी; इंडिया
संबंधित लेखक: jcb1480@gmail.com

 

डीओआई: 10.52984/ijomrc2104

सार:

  प्राचीन काल से ही वर्ण व्यवस्था ने सामाजिक ताने-बाने को बुरी तरह प्रभावित किया है। आज के आधुनिक युग में जातिगत भेदभाव ने युवा मन में विद्रोह की भावना पैदा कर दी है। जिसका सजीव चित्रण हिन्दी दलित कथाकार डॉ. सुशीला ताकभोर, ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कहानियों में परिलक्षित होता है। प्रस्तुत लेख में दसवीं दशक की कहानियों में जाति-आधारित भेदभाव का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है और दलित युवकों, शिक्षित उच्च जाति के युवाओं के आक्रोश का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है कि जाति सद्भाव के लिए सामाजिक परिवर्तन हो। लेकिन इसकी गति अभी भी धीमी है, इसकी गति को तेज करने के लिए हिंदी साहित्य के लेखकों को और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है।
प्रमुख शब्द: विद्रोह, जाति व्यवस्था, दलित, उच्च जाति,

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द्वारा प्रकाशित :


डॉ अभिषेक श्रीवास्तव,

वार्ड नंबर 6, उत्तर मोहाल, रॉबर्ट्सगंज, सोनभद्र, यूपी (भारत)

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