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गिरीश कर्नाड उपन्यास की नारीवादी चिंता : नागमंडल

 

रुचि सक्सेना*;  डॉ अंशु राज पुरोहित**

*अनुसंधान विद्वान; **प्रोफेसर,

अंग्रेजी विभाग, करियर प्वाइंट विश्वविद्यालय,

कोटा राजस्थान-भारत

अनुरूपी लेखक: *  ruchisaxena925@gmail.com ; **  अंशुराज18@gmail.com

डीओआई: 10.52984/ijomrc1406

सार:

इस प्रस्तुत लेख में गिरीश कर्नाड के चयनित उपन्यास नागमंडल का समालोचनात्मक विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। गिरीश कर्नाड, एक नाटककार के रूप में, ऐसे किसी भी नारीवादी टैग से मुक्त हैं और एक भारतीय महिला उपन्यासकार शशि देशपांडे की तरह, 'महिला को एक महिला' और 'एक इंसान' के रूप में मानते हैं। एक पुरुष नारीवादी के रूप में उन्होंने नारीवादी मुद्दों जैसे बाल विवाह, प्रेमविहीन विवाह, पति के हाथों में पत्नी का शोषण, समाज के दोहरे मानदंड और समाज में उसके खिलाफ चल रहे कानून आदि का इलाज किया है। यह पितृसत्तात्मकता के खोखलेपन और अन्याय को भी व्यक्त करता है। समाज। वह जोर देकर कहते हैं कि यह पितृसत्ता नहीं बल्कि पितृसत्ता है जो समाज के लिए आवश्यक है।

इस प्रकार, प्रेम, लिंग, करुणा और सहनशीलता जैसी नारी की परिष्कृत संवेदनाएं उसे समाज में नायाब बनाती हैं। नारी के गौरव को उनके नाटक नागा मंडला में भी स्थान मिलता है।

 

मुख्य शब्द: पुरुष प्रधान समाज, नारीवादी मुद्दा, समाज का अलिखित निर्णय

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